तुझे गर्मी लगे तो मैं क्या करूँ?
- Pawan Raj (filmmakerpawan@gmail.com)
- Apr 26, 2018
- 2 min read

क्या आप भी दिल्ली की चुभती मौसम से परेशान है? क्या धूप में निकलते ही आपका भी जी मचलने लगता है? क्या आप भी "बीप-बीप ये दिल्ली की गर्मी मुझे नहीं पसंद" अपने आस-पड़ोस में कहते या सुने पाए जाते है? तो आइये इसके पीछे का इतिहास और एवोलूशन आपको बताता हूँ। फोटो: media.sacbee
महाभारत के अनुसार, दिल्ली की यह भूमि शुरू में 'खांडवप्रस्थ' नामक जंगलों का विशाल मैदान था जिसे छठीं ईसापूर्व इंद्रप्रस्थ शहर बनाने के लिए जला दिया गया था। मतलब जंगलों को जलाना अथवा नष्ट करना मानवों ने उस युग से ही शुरू कर दिया था। फिर भी गर्मी इतनी नहीं गिरती थी।
इसके बाद दिल्ली का विस्तार इसके कई नामों से हुआ। तोमर वंश के कुमार अनंग पाल को हराकर पृथ्वीराज चौहान ने अपना राज स्थापित किया। फिर दिल्ली के सामने कई वंश और उनके वंशज आये, मुहम्मद ग़ज़नवी, रज़िया सुल्तान, अलाउद्दीन खिलजी, महमूद-बिन तुग़लक़, मोदी (आई मेन्ट तो सेय लोधी) और ना जाने कितने आया राम गया राम हो गए। पर फिर भी इनके ऐतिहासिक दस्तावेज में आज के जितने गर्मी का ज़िक्र किसी ने नहीं किया।
अगर हम बहुत सारे इतिहास को स्किप करके आगे बढे तो...
सन 1911 के दिल्ली दरबार में किंग जॉर्ज पंचम ने दिल्ली को पुनः भारत की राजधानी बनाने का ऐलान किया था। दिल्ली को सजाने-सँवारने और बसाने का काम सौंपा गया था “एडवर्ड लुटियंस” को। भारत के प्रथम नागरिक का निवास स्थान- राष्ट्रपति भवन, लोकतंत्र का मंदिर- भारत की संसद एवं गोलनुमा कनॉट प्लेस का निर्माण हुआ। फिर स्वतंत्रा की कई लड़ाइयों का केंद्र बन गया दिल्ली। पर एक बात गौर करने वाली ये है की अँग्रेजों ने भी अपने दस्तावेजों में ऐसी चमड़ा उजारक गर्मी और मौसम के बारे में कहीं भी नहीं लिखा है।
26 जनवरी, 1950 से भारत में गणतंत्र आया। जनता के हाथ में शासन आया (टॉचवुड)। फिर जनता ने भी खूब मौज उड़ाया। शुरू-शुरू में जमीन पाने या हड़पने की इतनी जल्दी थी की आस-पास की हरियाली को नेस्तोनाबूत कर दिया। 1991 के आर्थिक सुधार के बाद कई कंपनियों ने अपना माल भारत के बाज़ार में उतारा। साथ में रेफ्रीजिरेटर और एयर कंडीशन के साथ भारतीय घर पहली बार मूलभूत तरीके से परिचित हुआ। फिर एकाएक इनकी माँग पूरे भारतीय बाजार में बहुत तेज़ी से बढ़ गयी। पर साक्षरता दर कम रखने वाले भारत को यह मालूम नहीं था की यह मशीने बेतरतीब तरीकों से क्लोरो-फ्लोरो-कार्बन और कार्बन मोनो ऑक्साइड का उत्सर्जन करती है। और अब जब मालून है तब भी घंटा क्या फ़र्क़ पड़ता है।

लोगों को यह लगता है कि यह सारे गैस फुर्र से अंटार्टिका या आर्कटिक महाद्वीप चले जायेंगे और फिर ग्लेशियर को पिघलने में तो समय लगेगा तब तक तो हमारी उम्र आ चलेगी। लेकिन खुद को होशियार समझने वाला खरगोश अंत में हमेशा हारता है। हमारे द्वारा उत्पन्न की गई कोई भी चीज़ हमारे साथ ही वातावरण में रहती है। फोटो: अज्ञात
तभी तो गर्मी कितनी ज्यादा चिला चिला कर गिरती है तथा इसके साथ वो उमस है जो सबसे ज्यादा अति कष्टप्रद साबित होती है हमारे लिए। मैं फिर भी यह कतई नहीं कहूँगा की फ्रिज और ए.सी का इस्तेमाल करना छोड़ दो। क्यूँकि "अब पछताए हॉट (होत) का, जब चिड़िया चुग गई खेत"। वैसे बेटा जी "इट'स नेवर टू लेट"। ;)
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