जेबकतरा और खेल
- Pawan Raj (filmmakerpawan@gmail.com)
- Jan 15, 2018
- 2 min read
वो क्या है ना किसी मूवी का डायलॉग है की "जब तक समस्या निजी ना हो, तब तक हम उस पर संज्ञान नहीं लेते।" शत प्रतिशत सही बात। कुछ महीने पहले मेरे उत्तराखंडी परम मीत का फ़ोन यहीं राष्ट्रीय राजधानी की 'सो कॉल्ड' DTC के बस में एक जेब कतरे के खेल का शिकार हो गया। सखा है वो मेरा तो जाहिर है पीड़ा हुई मुझे, और संवेदना भी झलकी। पर आतंरिक दुःख उसका कैसे समझे?
जिंदगी 'बैक टू ट्रैक' चल रही थी की अचानक आज 15 जनवरी 2018, तड़के 2;30 बजे दोपहर में पुष्पा भवन बस स्टॉप पर मेरे फ़ोन को मेरे जीन्स के जेब से निकाल लिया गया। इतनी चुस्ती फुर्ती के साथ इस काम को अंजाम दिया गया की भीड़ भी कुछ ना कर सकी। चोर को इतना कहना है की 'सरउ फोनवा लेकर कहाँ जाओगे, आम फ़ोन था का, की तुमरे जैसे जाहिल से खुल जाएगा?'
उस समय खुद को काफी हताश महसूस कर रहा था। दिलवालों की शहर दिल्ली पहली बार अब रास नहीं आ रही। इसलिए नहीं की घटना का शिकार हुआ मैं या मेरा दोस्त। परन्तु इसलिए की पिछले चार-पाँच महीनों से फ़ोन छीनने की वारदात राष्ट्रीय राजधानी में काफी तेजी से हो रही है।
और क्षमाप्राथी हूँ मुख्यालय में बैठे अफसरगण और जन सेवा में कार्यरत पुलिसकर्मियों से, लेकिन हाँ आप कुछ नहीं कर रहे है सिवाय VIP's को सुरक्षा देने के। पिछले छह महीनो से फ़ोन छीनने की वारदात की दर में वृद्धि हुई है और वृहद रूप में हुई। और आप ऑनलाइन रपट जमा करने के अलावा क्या करते है?
एक भावी पत्रकार और इस देश का नागरिक होने के नाते यह मेरा कर्तव्य है की मैं इन मुद्दों पर सवाल उठाऊँ और पूछूँ आपसे की पुलिस आई.टी सेल आखिर इतनी कमजोर है या फिर कानून के हाथ कितने गज तक लम्बे है? मुझे यह भी पता है की इससे किसी को फर्क नहीं पड़ने वाला। क्यूँ? -क्यूँकि "जब तक समस्या निजी ना हो, तब तक हम उस पर संज्ञान नहीं लेते।"
तेरह हजार का फ़ोन था, थोड़ा चंदा दे दो। 😛 :p
उस जेबकतरे का मारा, मैं, दुखियारा पवन
Comments